नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ का जीवन परिचय एवम् महत्वपूर्ण प्रश्न
नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ
प्रिय पाठको आज हम मध्यकालीन भारतीय इतिहास के मुगल काल के शासक नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ के बारें में बात करने वाले है, एवम् इनसे सम्बन्धित सभी प्रश्नों का अध्ययन करेंगे
जन्म– 6 मार्च 1508
स्थान – काबुल
मृत्यु – 17/27 जनवरी 1556( दिल्ली)
संतान – अकबर, मिर्ज़ा मुहम्मद हाकिम पुत्री- अकीकेह बेगम, बख़्शी बानु बेगम, बख्तुन्निसा बेगम
शासनकाल
26 दिसंबर 1530 – 17 मई 1540 ई.
22 फ़रवरी 1555 – 17/27 जनवरी 1556 ई.
हुमायूँ का राज्याभिषेक 30 दिसंबर 1530 को इनके पिता बाबर की मृत्यु के बाद आगरा में हुआ।
राज्याभिषेक के बाद हुमायूँ के भाई कामरान ने विद्रोह कर दिया और लाहौर और मुल्तान पर कब्जा कर लिया।
हुमायूँ के सैन्य अभियान
1531 में हुमायूँ ने कालिंजर के शासक रुद्र देव पर पहला अभियान चलाया।
1532 में हुमायूँ की सेना और महमूद लोदी के मध्य युद्ध हुआ जिसमें महमूद लोदी कि पराजय हुई।
1537 ई. में हुमायूँ ने पूर्व का द्वार कहे जाने वाले चुनार गढ़ पर अपना कब्जा कर लिया।
27 जून 1539 में शेर खाँ(शेरशाह सूरी) व हुमायूँ के बीच बक्सर के निकट चौसा नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें हुमायूँ की पराजय हुई।
इस युद्ध मे हुमायूँ एक भिश्ती (निज़ाम) की सहायता से अपनी जान बचाने में सफल रहा, इस खुशी में हुमायूँ ने भिश्ती को एक दिन के लिये बादशाह बनाया और भिश्ती ने चमड़े के सिक्के जारी किये।इसका उल्लेख गुलबदन बेगम की रचना हुमायूँनामा में मिलती है।
चौसा के युद्ध में सफल होने के बाद शेरखाँ ने खूद को सुल्तान घोषित किया और ‘शेरशाह‘ की उपाधि धारण की । साथ ही अपने नाम के खुत्बे पढ़वाए तथा सिक्के ढलवाने का आदेश दिया।
सन 1540 ई . में हुमायूँ ने अपने भाई हिंदाल और अस्करी की सहायता से बिलग्राम (कन्नौज) को जीतना चाहा, लेकिन हुमायूँ की असफलता ने यहाँ भी उसका साथ नहीं छोड़ा । हुमायूँ की इस युद्ध में असफलता के बाद शेरशाह ने सरलता से आगरा और दिल्ली पर अधिकार कर लिया । इस तरह हिंदुस्तान की राजसत्ता एक बार फिर से अफगानों के हाथों में चली गयी।

हुमायूँ ने दुबारा 1545 ई . में ईरान के शासक की सहायता से कंधार एवं काबुल पर अधिकार किया और इसके बाद जब 1553 ई . में शेरशाह के उत्तराधिकारी इस्लामशाह की मृत्यु के बाद अफगान साम्राज्य विघटित होने लगा तब ऐसी स्थिति में हुमायूँ को पुनः अपने राज्य प्राप्ति का अवसर मिला
1554 ई . में हुमायूँ अपनी सेना के साथ पेशावर पहुँचा और 1555 ई . में उसने लाहौर पर कब्जा कर लिया।
1555 ई . में लुधियाना के निकट ‘मच्छीवाड़ा‘ नामक स्थान पर हुमायूँ एवं अफगान सरदार हैबत खाँ एवं तातार खाँ के बीच संघर्ष हुआ, इस अभियान में हुमायूँ की विजयी हुई।
1555 ई . मे अफगान सेना और मुगल सेना के बीच सरहिंद का युद्ध हुआ। जिसमें मुगल सेना का नेतृत्व बैरम खाँ ने किया। इस युद्ध मे मुगलों की विजय हुई
इस जीत के पश्चात् 1555 ई . में एक बार पुनः दिल्ली के तख्त पर हुमायूँ बैठा
17/27 जनवरी 1556 ई . में ‘दीनपनाह‘ के पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मृत्यु हो गई।
हुमायूँ की जीवनी का नाम हुमायूँनामा है जो उनकी बहन गुलबदन बेग़म ने लिखी है। इसमें हुमायूँ को काफी विनम्र स्वभाव का बताया गया है
हुमायूँ के लिए लेनपुल लिखता है कि ‘हुमायूँ जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते ही मर गया‘
हुमायूँ ज्योतिष में विश्वास रखता था, जिस कारण वह सप्ताह के सातों दिन अलग अलग कपड़े पहनता था।
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