चंपारण सत्याग्रह(1917) – प्रथम सविनय अवज्ञा आन्दोलन
चंपारण सत्याग्रह(1917) – प्रथम सविनय अवज्ञा
समय प्रथम विश्व युद्ध का था, पूरी दुनिया के लिए उथल पुथल का दौर था और ठीक उसी वक्त चंपारण भीतर ही भीतर सुलग रहा था वर्षों से गरीबी और मजबूरी की मार झेल रहे किसानों के लिए अब कुछ भी सहना मुश्किल था। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेज़ बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया ,जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3/20 वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। ये व्यवस्था ‘तिनकठिया पद्धति’ के नाम से जानी जाती थी। 19 वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगो (डाई) का विकास हो गया , जिसने नील को बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चंपारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को मजबूर हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे ,परंतु परिस्थितियों को देख कर गोरे बागान मालिक किसानों की विवशता का लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिए किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान व अन्य करों की दरों में अत्याधिक वृद्धि कर दी। अप्रैल 1917 में महात्मा गांधी नील किसानों के बुलावे पर चंपारण पहुंचे ,इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है चंपारण निवासी राजकुमार शुक्ल नील की खेती करने के लिए मजबूर किसानों की दुर्दशा से चिंतित थे लिहाज़ा उन्होंने देश के किसी बड़े नेता को यहां बुलाने की ठानी ।राजकुमार शुक्ल महात्मा गांधी से मिले और चंपारण में आंदोलन का नेतृत्व का आग्रह किया इसके बाद जो हुआ वो भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है।
चंपारण महात्मा गांधी की प्रयोगशाला बन गया. जहा पर उन्होंने सत्य और अहिंसा पर अपने पहले प्रयोग किए । सरकार के चंपारण से चले जाने के आदेश के विरुद्ध गांधीजी द्वारा अहिंसात्मक प्रतिरोध या सत्याग्रह का यह मार्ग चुनना विरोध का एक सर्वोत्तम तरीका था । 18 अप्रैल 1917 को गांधीजी को जेल से कोर्ट में पेश किया गया और उस दिन मजिस्ट्रेट ने तारीख आगे कर दी और अखबारों में यह खबर फैल गई और अंग्रेजी हुकूमत तक मामला पहुंचा उस दौरान पहला विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था और रूस में लेनिन की बोल्शेविक क्रांति आखरी दौर में पहुंच चुकी थी। गांधी के सम्मुख सरकार ने विवश होकर मुकदमा वापस लिया। अतः सरकार ने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गांधीजी को चंपारण के गांवों में जाने की छूट देने का निर्देश दिया। चंपारण में बापू सिर्फ अंग्रेजो से ही नही लड़े बल्कि उन्होंने स्थानीय लोगों को गन्दगी से लड़ने के लिए भी प्रेरित किया । इसी बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिए एक आयोग की स्थापना की तथा गांधीजी को इसका सदस्य बनाया गया। गांधीजी आयोग को यह समझाने में। सफल रहे की तिनकठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिए। उन्होंने आयोग को यह भी समझाया की पैसा अवैध रूप से वसूला गया है,उसके लिए हरजाने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। बाद में एक और समझौते के अनुसार गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को लौटाने में सहमत हो गए।इस सम्पूर्ण घटना के पश्चात एक दशक के भीतर ही अंग्रेज़ बागान मालिक चंपारण छोड़ने को विवश हो गए । चंपारण सत्याग्रह सफल रहा और अंग्रेज़ झुकने को मजबूर हुए , अंग्रेज़ तो झुक गए परंतु आज भी हमारे आस पास गंदगी के ढेर नजर आ जाते है इस नजरिए से अगर देखा जाए तो चंपारण आज गांधी जी का महत्व आज के दौर में और भी ज्यादा बढ़ जाता है
चंपारण सत्याग्रह का इतिहास
चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष पूर्ण हो चुका है। बुवाई से पहले जमीन जमादार तय करते थे फसल कि कीमत बेहद कम होती थी । प्रति बीघा 19 रुपए था परंतु फिर भी भुगतान कम था, मुआवजे की कोई व्यवस्था नहीं थी। उस वक्त चंपारण जिले में 70 नील के कारखाने थे उनमें से और पूरे जिले पर इन कारखानों का प्रभाव था। 2 से 5 मिल की दूरी पर बने इन कारखानों ने अपने अपने इलाकों के किसानों को परेशान किया । प्रथम विश्व युद्ध चलने की वजह से अंग्रेजों को और ज्यादा पैसों को आवश्यकता थी लिहाजा नील की खेती करने वाले भारतीय किसानों पर और ज्यादा दबाव बनाया गया था। छोटे किसानों ने 1907 में जिलाधीश को अर्जी दी और अपनी परेशानी के बारे में सुनाया , नतीजतन कुछ करों से उनको राहत दी गई इसमें कारखानों की तरफ से वसूला जाने वाला एक आना भी शामिल था परिणामतः कारखानों की आमदनी में कमी हुई तो वे लोग किसानों से खेती की सिंचाई के लिए अलग से पैसा वसूलने लगे।1914 में जाकर यह वसूली बंद हुई। चंपारण की हालत बहुत खराब हो गई । परेशान किसान, बदहाल जनता और लोगो पर टैक्स का बोझ। 10 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी जब मुज्जफरपुर पहुंचे तो उनके एजेंडा में ये तीन मुद्दे प्रमुख थे । चंपारण के लोग उनका यह बेसब्री से इंतजार कर रहे थे बदहाल जनता को एक मसीहा की जरूरत थी जो उनके दुख हर लें । इधर गांधी अपने सत्याग्रह के अस्त्र को आजमाना चाहते थे यानी चंपारण को गांधी की जरूरत थी और गांधी जी को चंपारण जैसे हालात की , जहां से वो शोषण व हिंसा के खिलाफ अहिंसा का रण छेड़ सके । अंततः किसान जिन समस्याओं से पीड़ित थे उनमें कमी हुई। इस तरह भारत में “प्रथम सविनय अवज्ञा आंदोलन” की पहली लड़ाई गांधीजी ने जीत ली। चंपारण में उन्होंने वह भयानक गरीबी भी देखी जो भारतीय किसानों के जीवन का एक अंग थी। गांधीजी को चंपारण गए 100 वर्ष बीत गए । वहा नील के खेतों में बदन जलाती औरतों और बच्चों को उनका हक मिल गया , अंग्रेज़ देश छोड़कर चले गए परंतु गांधी ने हमे सिखाया की अहिंसक आंदोलन किस तरह मजबूत से मजबूत शासकों को झुकने के लिए मजबूर कर देते है, लेकिन चंपारण का एक सबक ये भी है कि इंसान की पहली लड़ाई अपने आपसे और अपने आसपास के वातावरण से है। 19 नवंबर,1925 के यंग इंडिया के एक अंक में गांधीजी ने भारत में स्वच्छता को लेकर अपने विचारो को लिखा –
“देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई…इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबुरी है।”
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