आंग्ल–मराठा युद्ध – भारत का इतिहास

आंग्ल–मराठा युद्ध

आंग्ल–मराठा युद्ध
भारतीय इतिहास में तीन आंग्ल–मराठा युद्ध हुए है। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1819 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और ‘मराठा महासंघ’ के मध्य हुए। अन्ततः इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठा महासंघ का पूर्णतः विनाश हो गया। मराठाओं के लिए युद्ध करने वालों को पोलिगार( भूस्वामी) कहा जाता था। मराठा सरदारों में पहले से भी काफी भेदभाव थे जिस कारण वे अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहा रघुनाथ राव ने ईस्ट इंडिया कंपनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा और अंग्रेजों के साथ सूरत की सन्धि की, वही बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेजों के साथ बसीन की सन्धि की और मराठों की स्वतंत्रता को बेंच दिया। पहला युद्ध ( 1775–1782 ई.) रघुनाथ राव महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारंभ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बडगाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा। इसमें अंग्रेजों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास ‘सालसेट द्वीप’ पर कब्जे के रूप में एकमात्र लाभ मिला ।

1818 में बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण का दिया। अंग्रेजों ने उसे बंदी बनाकर बिठूर भेज दिया था जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों के पतन में मुख्य भूमिका बाजीराव द्वितीय की ही रही थी, जिसने अपनी कायरता और धोखेबाजी से सम्पूर्ण मराठों और अपने कुल को कलंकित किया था। अंग्रेजों और मराठों के मध्य तीन युद्ध हुए , जिन्हे इतिहास में आंग्ल – मराठा युद्ध के नाम से जाना गया।

आंग्ल–मराठा युद्ध

प्रथम आंग्ल–मराठा युद्ध ( 1775–82 ई.)

यह युद्ध रघुनाथ राव की महत्वाकांक्षाओं के कारण हुआ। रघुनाथ राव ( राघोबा) जब पेशवा ना बन सका तो उसने 7 मार्च 1775 ई. को अंग्रेजों से सूरत की संधि कर ली। अंग्रेजों ने राघोबा को पेशवा स्वीकार किया। 1776 ईस्वी में नाना फडणवीस ने वॉरेन हेस्टिंग्स के दूत ‘कर्नल अपटन’ के साथ पुरंदर की संधि कर ली जिसके द्वारा मराठों ने राघोबा को वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया जिसके बदले राघोबा मराठा राजनीति से संन्यास ले लेगा। कंपनी रघुवर का पक्ष नहीं लेगी व सालसेट कंपनी के पास ही रहने दिया जाएगा। लेकिन राघोबा ने यह संधि मानने से इनकार कर दिया। 7 वर्ष तक चले युद्ध के बाद मई 1782 में सालबाई की संधि हुई।इसमें महादजी सिंधिया ने मध्यस्थता की। वॉरेन हेस्टिंग्स ने सालबाई को संधि को आपत्तिकाल की एक सफलवार्ता कहा है। इस युद्ध में अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व गोदार्द ने किया। महादजी सिंधिया ने बडगांव नामक स्थान पर 1779 ई. में अंग्रेजी सेना को हराया व बडगांव की संधि हुई। 1794 में महादजी सिंधिया की मृत्यु के बाद उनका दत्तक पुत्र दौलतराव सिंधिया शासक बना। 1784 ई. के मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने पेशवा को वकील–ए–मुतलक एवं महादजी को ‘नायब वकील –ए–मुतलक’ की उपाधि दी।

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द्वितीय आंग्ल–मराठा युद्ध (1803–1806ई.)

1800 ई. में नाना फडणवीस की मृत्यु हो गई। इस पर पूना में अंग्रेज़ रेजीडेंट कर्नल पामर ने कहा था ‘यह मराठों का अंतिम बुद्धिमत्ता पूर्ण शासक था तथा उसकी मृत्यु के साथ ही मराठों से सुझबुझ समाप्त सी हो गई है।’ 1801ई. में बाजीराव द्वितीय ने जसवंत राव होल्कर के भाई की पूना में हत्या करवा दी। होल्कर ने पूना पर आक्रमण कर पेशवा व सिंधिया को पराजित कर पूना पर अधिकार कर लिया व अमृतराव के पुत्र विनायक राव को पेशवा बना दिया। बाजीराव ने अपने पिता राघोबा की भांति भागकर बसीन में अंग्रेजी के यहां शरण ली तथा 1802 ई. में बसीन की संधि कर ली। बसीन की संधि अंग्रेजों के लिए अधिक महत्वपूर्ण जीत थी, क्योंकि यह सन्धि राज्य से न होकर राज्यों के संघ से थी। अतः सम्पूर्ण मराठा संघ कानूनी रूप से अंग्रेजों के प्रभाव में आ गया व लॉर्ड वैलेजली को मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। मराठों के लिए यह सन्धि एक राष्ट्रीय अपमान थी। अतः भोंसले, सिंधिया, होल्कर ने अंग्रेजों से अलग–अलग युद्ध किये। दक्षिण में आर्थर वैलेजली के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने सितम्बर,1803 में असाय में तथा नवंबर ,1803 में अरगांव में सिंधिया व भोंसले की मिली–जुली सेना को हराया। उत्तर में लॉर्ड लेक ने 1 नवंबर , 1803 को लसवाड़ी के युद्ध में सिंधिया को पराजित किया। रघुजी भोंसले द्वितीय अंग्रेजों से पराजित होकर 17 दिसंबर 1803 ई. को देवगांव की संधि की। उसने बालासोर सहित कटक व वर्धा नदी के पश्चिमी भाग अंग्रेजों को दे दिए। दौलतराव सिंधिया ने भी अंग्रेजों से 30 दिसंबर ,1803 को सुरजी–अर्जन गांव की संधि की, जिसमें गंगा यमुना के बीच के क्षेत्र,बुंदेलखंड का कुछ भाग, गुजरात के कच्छ जिले में गोदावरी व गोदावरी तक का जंगल अंग्रेजों को दे दिया।सिंधिया ने जयपुर, जोधपुर तथा गोहद की राजपूत रियासतों पर से अपना अधिकार छोड़ दिया। मुकंद दर्रा के युद्ध में 1804 ई. में जसवंत राव होल्कर ने कर्नल मॉनसन के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना को पराजित किया। भरतपुर का जात शासक रणजीत सिंह भी होल्कर का मित्र था। उसने 1804 ई. में जनरल लेक के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना को भरतपुर के किले पर आक्रमण के दौरान पराजित किया। जसवंत राव होल्कर ने 07 जनवरी ,1806 में सर जॉर्ज बार्लो से राजपुर घाट की सन्धि की।

तृतीय आंग्ल–मराठा युद्ध (1817–1818 ई.)

यह युद्ध लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय हुआ। हेस्टिंग्स ने पिंडारियो का दमन शुरू किया । पिंडारी मराठा सेना में काम करते थे, अतः मराठा भी युद्ध में शामिल हो गए। हेस्टिंग्स ने पिंडारियों के दमन के लिए दो कमान बनाई। एक का नेतृत्व स्वयं किया तथा दूसरी कमान ‘सर टॉमस हिसलोप ’ को सौंपी। 1817 ई. तक पिंडारियों का पूर्ण दमन हो गया। हेस्टिंग्स ने सुव्यवस्थित योजना के तहत नागपुर के राजा से 27 मई, 1816 को नागपुर की संधि, पेशवा से जून 1817 को पूना की सन्धि , व सिंधिया से 5 नवम्बर 1817 को ‘ग्वालियर की सन्धि’ की। सिंधिया के बिना युद्ध किए ही ग्वालियर की सन्धि द्वारा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।

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Lokesh Tanwar

अभी कुछ ख़ास है नहीं लिखने के लिए, पर एक दिन जरुर होगा....

2 thoughts on “आंग्ल–मराठा युद्ध – भारत का इतिहास

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